अग्र-उपाख्यान के अनुसार-महाराजा अग्रसेन का जन्म इक्ष्वाकु कुल में हुआ था। इक्ष्वाकु कुल में अनेकों पुण्यकर्ता महापुरुष हुए है। महाराजा मान्धाता, महाराज सगर, दिलीप, भागीरथ, कुंकुत्स्यु, महाराज मरूत, महाराजा रघु, भगवान श्रीराम आदि अनेकों कीर्तिवंत राजाओं की कथाओं सेयह कुल गौरवांवित हुआ है। इसी कुल में महाराजा अग्निवर्ण के दैव पुत्रों सदृश्य पाँच पुत्र हुये। इनमेंसे 3 पुत्रों ने अपने वंश का विस्तार किया। राजा विश्वशाह के पुत्र प्रसेनजीत हुये जिन्होंने एक अजेयपुरी का निर्माण करवाया। इन्हीं प्रसेनजीत के प्रतापी पुत्र बृहतसेन हुये। बृहतसेन के कुल में राजा वल्लभसेन उत्पन्न हुये। सूर्यकुल में उद्भूत महाराज वल्लभसेन प्रतापपुर के राजा (नायक) थे। प्रतापपुर उन्नीस गांवों का छोटा-सा राज्य था। यह नगर तीन ओर नदियों से घिरा हुआ था। वल्लभसेन की महारानी भगवती ने अश्वनी मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को रविवार के दिन मध्यान्ह काल के महेन्द्र समय के शुभ मुहूर्त में एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम अग्र रखा गया। महराजा अग्रसेन का प्रादुर्भाव लगभग 51 सौ वर्ष पूर्व द्वापर युग और कलयुग के संधिकाल में हुआ।
किशोरावस्था आने पर अग्रसेन जी को मालव निवासी महर्षि तांडव्य के आश्रम में विद्या अर्जन के लिए भेजा गया। यथासमय अग्रसेन जी ने दीक्षा, संग्रह, सिद्धि और प्रयोग इन चारों पादों से युक्त धनुर्वेद की तथा रहस्य सहित शस्त्र समूहों की शिक्षा प्राप्त की। तलवार आदि शस्त्र चलाना तथा संहार विधि सहित सम्पूर्ण अस्त्र शास्त्रों का रहस्यमय ज्ञान उनके गुरु ने उन्हें विधिवत् सिखलाया। ताण्डव्य ऋषि के आश्रम में ही अग्रसेन की 14 वीं वर्षगांठ मनाई गई तत्पश्चात् सम्पूर्ण विद्या में निष्णात अग्रसेन अपने राज्य में वापस आ गये।
इसी समय राजा वल्लभसेन ने पाण्डवों की तरफ से सेना सहित युद्ध में भी भाग लिया। एक बार महाराजा अग्रसेन ज्योतिर्लिंग हाटकेश्वरम् के दर्शन कर मणिपुर के उपवन में विश्राम कर रहे थे। आगे पढ़े